महान बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म कौन थे?


महान भिक्षु बोधिधर्मन

क्या आप महान भिक्षु बोधिधर्मन की रहस्यमयी कहानी व इतिहास पढना चाहते थे?

भारत में महान व्यक्तित्व की सूची बहुत बड़ी है। ऐसे महान व्यक्तित्व जो विभिन्न क्षेत्रों में अपना महत्त्वपुर्ण योगदान दिये हैं। ऐसे ही महान व्यक्तियों के कारण भारत को विश्व गुरु की उपाधी मीली है। भारत के ऐसे ही एक महान व्यक्ति थे, बोधिधर्मन। बोधिधर्मन का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राजवंश के कांचीपुरम के राज परिवार में हुआ था।

बचपन में सांस लेने की परेशानी होने के कारण योग करना परता था, इससे कारण उन्होंने योग में रूची दिखाई। छोटी सी उम्र में ही युद्ध कला सिख ली।कांचीपुरम के राजा सुगंध के तीसरे पुत्र बोधिधर्मन बचपन में ही बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हो गए थे।

फिर बौद्ध भिक्षु बन गये। उन्होंने ध्यान लगाना सिखने लगे और फिर ध्यान से मन को कैसे शांत किया जाता है यह भी सिख लिये। 22 साल की उम्र में उन्होंने मोक्ष को प्राप्त कर लिया और 28वां बौद्ध गुरु बन गये। उनके जीवनी के विषय में एक नहीं अनेकों किताबें लिखी जा सकती थी, लेकिन भारतीय इतिहास में बहुत ही कम महत्व दिया गया।

5वी से 6वी सदी में बोधिधर्मन ने ही चीन, जापान और कोरिया जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार और विस्तार किया और योग, आयुर्वेद, सम्मोहन, मार्शल आर्ट और पंच तत्वों को काबू में करने की ज्ञान यहाँ के लोगों को दिया। पुराणों के अनुसार महर्षि अगस्त्य और भगवान परशुराम सबसे पहले मार्शल आर्ट प्रयोग किया। बाद में भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को और अच्छे से विकसित किया और इसे कलारीपयट्टू नाम दिया। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने इस विद्या को अपनी नारायणी सेना को सीखाया इसी कारण नारायणी सेना बिना शस्त्र के लड़ने वाला पहली सेना बनी। हिन्दु ग्रंथ के अन्य विद्याओं का प्रचार बोधिधर्मन ने किया।

आज भी इन विद्याओं को जहाँ-जहाँ बोधिधर्मन गये वहाँ-वहाँ सिखाया जाता है, लेकिन भारत में नहीं। महान भिक्षु बोधिधर्मन एक आयुर्वेदाचार्य भी थे, इसलिये जड़ी-बूटी का ज्ञान भी दिये। प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणालियों के माध्यम से चिकित्सा पद्धतियों के भी ज्ञान दिये। चीन, जापान और कोरिया की भूमि को अपने ज्ञान और उपदेश देकर सींचा है। इन देशों में भिक्षु बोधिधर्मन को भगवान बुद्ध के बराबर का दर्जा दिया गया है।

चीन को सिखाया मार्शल आर्ट: मार्शल आर्ट का जन्म !

राजमाता के आदेश पर महान भिक्षु बोधिधर्मन सत्य और ध्यान के प्रचार-प्रसार के लिए चीन गये। इन्होंने अपनी चीन की यात्रा समुद्री मार्ग से होते हुए चीन के दक्षिणी समुद्री तट केन्टन बन्दरगाह पर उतरे थे। फिर उन्होंने शाओलिन मंदिर गये, वहाँ जाकर मंदिर के अधिकारियों को बताया कि भारत से आए हैं, तो उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से मना कर दिया गया।

बोधिधर्म के चीन जाने से लगभग 30 साल पहले 495 ई एक बौद्ध साधू चीन में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। फिर बोधिधर्मन पहाड़ के ऊपर चले गए और एक गुफा में ही रहने लगे। गुफा में ही ध्यान लगाने लगे और स्वस्थ रखने के लिए नई-नई योग करने लगे। काफी समय गुफा में तपस्या करने के बाद शाओलिन मंदिर के अधिकारियों ने मंदिर में आने की इजाजत दे दी।

मंदिर में आने के बाद महान भिक्षु बोधिधर्मन ने देखा की मंदिर के लोगों स्वस्थ नहीं है, फिर उन्होंने मंदिर के लोगों स्वस्थ रहने के लिय योग विद्या का ज्ञान दिया। इस विद्या को जेन बुद्धिज्म के नाम से का दिया गया। यही विद्या आगे चल कर चीन की नई युद्ध विद्या मार्शल आर्ट का जन्म हुआ। शाओलिन मंदिर में ही ध्यान-सम्प्रदाय की स्थापना की थी। बड़ी कठोर परीक्षा के बाद उन्होंने कुछ मंदिर अधिकारी व्यक्तियों को चुना और अपने मन से उनके मन को बिना कुछ बोले शिक्षित किया।

महान भिक्षु बोधिधर्मन

 

शिष्यों ने ही दे दिया जहर

चीन के इतिहास के अलावा चीन के कथाओं में महान भिक्षु बोधिधर्मन अनेक कहानियों का उल्लेख है। कहते हैं चीन के नान-किंग गाँव में गये तो गाँव वालों ने गाँव में आने नहीं दिया। कहते हैं भविष्यवाणी हुई थी कि इस गाँव में कोई आपदा आने वाला है। इसलिये गाँव वालों ने गाँव से बाहर निकाल दिया। गाँव से निकाले जाने के बाद पास के पहाड़ों में चले गए।

गाँव में कुछ समय बाद महामारी फैल गई थी। गाँव में जिसे भी यह बिमारी होती थी, गाँव के लोग उसे गाँव के बाहर उसी पहाड़ के निचे छोड़ देते थे जहाँ बोधिधर्मन रहते थे। ताकि किसी अन्य को यह बिमारी न लगे और गाँव में महामारी न फैले। बोधिधर्मन ने जब यह देखा तो गाँव के वालों को आयुर्वेदिक चिकित्सा की सहायता से बिमारी लोगों को ठिक किये और गाँव को महामारी से बचा लिया।

कुछ समय बाद गाँव पर लुटेरों ने हमला कर दिया। फिर बोधिधर्मन ने गाँव के वालों आयुर्वेदिक चिकित्सा की विद्या और जड़ी-बूटी का ज्ञान दिये। साथ में कालारिपट्टू विद्या का ज्ञान भी दिये। ताकि गाँव वाले लुटेरों से बच सकें। चूंकि आयुर्वेदाचार्य के साथ-साथ कालारिपट्टू में भी पारंगत थे। कालारिपट्टू को आज मार्शल आर्ट कहा जाता है। गाँव वाले महान भिक्षु बोधिधर्मन के शिष्य बन गये और मार्शल आर्ट, सम्मोहन, आयुर्वेदिक चिकित्सा आदि का ज्ञान प्राप्त किये। गाँव के लोग उनसे प्यार से उन्हें दामू बलाने लगे।

कई वर्षों बाद जब बोधिधर्मन ने अपने शिष्यों कहा में वापस भारत जा रहा हूँ। तब शिष्य ने ही नके खाने में जहर मिला दिया, लेकिन बोधिधर्मन ये जान गये कि खाने में जहर है। फिर भी उन्होंने खाना खा लिये। जहर के कारण उनकी मृत्यु हो गया।

चाय की खोज

एक चीनी कथाओं के अनुसर बोधिधर्मन ध्यान कर रहे थे, ध्यान करते-करते वो सो गए थे। जब आँख खुली तो उन्होंने अपनी पलके काट कर जमीन पर फेंक दी थी। ताकि ध्यान करते समय नींद न आये। वह पलकें जब जमीन पर गिरीं तो एक पौधा बन गया। जिसे बाद में चाय का पौधा नाम दिया गया।
एक अलग चीनी कथाओं के अनुसर बोधिधर्मन के साथ चार शिष्य हर दम उनके साथ रहते थे। एक दिन बोधिधर्मन के शिष्यों ने कुछ अलग-अलग किस्म की पत्तियां दिखाई। बोधिधर्मन ने जाँच की, जाँच से पता चला कि इन पत्तियों को उबालकर पिया जाए, तो इससे नींद नहीं आती है। फिर शिष्यों ने इसे पि कर ध्यान लगाने लगे। इस तरह से चाय की खोज हुई। चाहे जो भी हो चाय की खोज महान भिक्षु बोधिधर्मन ने ही की थी

ध्यान संप्रदाय

ध्यान सम्प्रदाय में सत्य की अनुभूति में प्रकृति का महान उपयोग है। प्रकृति ही ध्यानी सन्तों का शास्त्र है। ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया में वे प्रकृति का सहारा लेते हैं और उसी के निगूढ प्रभाव के फलस्वरूप चेतना में सत्य का तत्क्षण अवतरण सम्भव मानते हैं। बोधिधर्म के विचारों के अनुसार वस्तुतत्त्व के ज्ञान के लिए प्रज्ञा की अन्तर्दृष्टि की आवश्यक है, जो तथ्यता तक सीधे प्रवेश कर जाती है।

इसके लिए किसी तर्क या अनुमान की आवश्यकता नहीं है। इसमें न कोई विश्लेषण है, न तुलनात्मक चिन्तन, न अतीत एवं अनागत के बारे में सोचना है, न किसी निर्णय पर पहुँचना है, अपितु प्रत्यक्ष देखना ही सब कुछ है। इसमें संकल्प-विकल्प और शब्दों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। इसमें केवल ‘ईक्षण’ की आवश्यकता है। स्वानुभूति ही इसका लक्ष्य है, किन्तु ‘स्व का अर्थ नित्य आत्मा आदि नहीं है। ध्यान सम्प्रदाय एशिया की एक महान उपलब्धि है। यह एक अनुभवमूलक साधना-पद्धति है।

यह इतना मौलिक एवं विलक्षण है, जिसमें धर्म और दर्शन की रूढियों, परम्पराओं, विवेचन-पद्धितियों, तर्क एवं शब्द प्रणालियों से ऊबा एवं थका मानव विश्रान्ति एवं सान्त्वना का अनुभव करता है। इसकी साहित्यिक एवं कलात्मक अभिव्यक्तियाँ इतनी महान एवं सर्जनशील हैं कि उसका किसी भाषा में आना उसके विचारात्मक पक्ष को पुष्ट करता है।

 


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